Tuesday, 21 May 2019

शेर को मारने वाले नदी हत्यारे !





पानी तीन बना सकते है
सिंह शायर और सपूत --

आज यह सब आत्म हत्या कर रहे है
या सरकारी संरक्षण मे इनके विचारो
और शरीर की हत्या हो रही है !

चित्रकूट के समाज पर नदी हत्या
तालाब कुंवा  हत्या और शेर हत्या
का आरोप है ???
इधर 2019 मे इस समाज ने तीन
जवान बाघो को -करेट से मारा
या कुल्हाड़ी से!
साहब इस समाज ने शेर नही मारा
इन लोगों ने पानी मारा है ???

जिस जंगल मे शेर कायर हो जाय
वहां का समाज तो पानी से मरेगा ???
वृक्ष रोपण भी पैसा बनाने की बडी योजना
है कितनी सरकारें आयी सबने गिनीज
बुक मे नाम लिखा या अरबों रुपये पार्टी
फण्ड मे गये -पर पेड कितने बचे उस पर कोई
रिपोर्ट  किसी सरकार ने सार्वजनिक नही की!
किसी ने यह नही कहा कि जो जंगल आज है
उसे कैसे बचाए ???


2014 से आज तक सरकारी आकडे बताते है कि
2 लाख हेक्टेयर जंगल मैदान हो गये और
सरकारी विकास उसको लील गया??
चित्रकूट के भरतकूप और महोबा के कबरई के अमूल्य पहाडो
को सडके लील गयी और यहां के मजदूर भूख
से रोज लडते है टीबी से लडकर मर जाते है
फिर 10 साल का लड़का लडकी चल देते है
अपने पिता की विरासत बचाने नही बल्कि
अपनी माँ और भाई बहन की
भूख मिटने के सवालो को हल करने !

जो जंगल बचाने की बात करेगा
वह राजनैतिक दलो
का बडा दुश्मन है ??
इसीलिए सिविल सोसाइटी को सरकार
भ्रष्ट कहती है क्योंकि सरकार मे बैठे राजनैतिक
दल बडे ईमानदार है ?
मेरे मानना है की जिन सामाजिक संगठन को
सरकार ने भ्रष्ट बताया है सच यह है कि
सरकारी यंत्रो ने उन्हे भ्रष्ट बनाया माहौल दिया
पर -इतना जरूर है कि वह राजनैतिक दलो से
अधिक ईमानदार है --
अपनी प्रकृति को बचाने मे बडा काम किया !
यदि सरकारें ईमानदार थी और है तो
भारत के नदी वैज्ञानिक प्रोफेसर जी डी अग्रवाल
के उपवास पर बात करती प्रधानमंत्री बात करते
और उनके जीवन को बचा ले जाते!
उनकी मृत्य तो सरकारी संरक्षण मे हुई
उन्होंने 112 दिन भूख सहकर देखा कि सरकार नही
मान रही अब गंगं दशहरा 2018 को
जल भी त्याग दिया ???इसके बाद भी
सरकार मे बैठे लोग नदी पुनर्जीवन की
बात करते है ?क्या यह ढोंग नही है !!!

पानी बनाने की मशीन को
सरकार मे बैठे राजनैतिक दलो के लोगे ने
उनके संरक्षण दाताओं ने और
समाज के बडे लोगो ने पहले बिगाडा !
और
समाज के लालची लोगो ने उसे बेचा
और
अब समाज की बेरोजगारी
और भूख मिल कर मशीन को मिटा रही है!

अकेले वन विभाग को दोष देना तो
सबसे बडी बेवकूफी है --
जिसको वोट देते है -वह तुम्हारे पानी
बनाने की मशीन को नीलाम करता है?

आम लोग पेट भरने के लिए जंगल काटते है
पहाड तोडते है और उसे खत्म करते है
तो क्यो ??
क्योकि उनकी मज़बूरी है पेट !!
और बडे लोग तो चुनाव फण्ड
तथा पीढ़ियों के लिए विदेशों मे बैक बैलेश बढाने
के लिए --

यह सत्य है कि बडे लोग अब बडी मशीन ले
आए है पहाड तोडने और भरने की
इसलिए अब आदमी कम लगते है
मशीन बडा -बडा काम करती है।
अब संकट रोजगार का है !

जबसे मशीन खराब हुई -
तबसे बादलों ने आना बन्द किया !
शेरों की हत्या का रोजगार
शुरू हुवा --

जे सी बी पोकलैण्ड ने  पहले गाव की जमीन
खायी और अब पहाड की चोटी मे
कम्पनी ने पोकलैण्ड पहुंचा कर
नेताओं की इजीनियर और दलालों की जेब
गरम की!
आज पोकलैण्ड --
पहाड को अंगूठा दिखा कर
कहती है कि तू किस खेत की मूली है
बडा अहंकार था कि मेरे ऊपर कोई
नही चढ़ सकता मुझे कोई तोड नही सकता
आदमी थोडा थोडा तोड पाता था तब तू उसे चिढ़ाता था
देख मै तुझे कैसे तोडती हूँ-
साल भर -ऐसा मशीन चली कि जो पहाड
100 साल मे आदमी नही तोड पाया
मशीन ने भरत राम के पहाड को
चित्रकूट मे 1साल के अन्दर आधा कर दिया
और रौंद दिया पानी बनाने की मशीन को !

कुल्हाड़ी ने काट दिया चित्रकूट के उन जंगलों को
जिसमे कभी राम आए थे !
अब तो वन निगम के पास मशीन की कुल्हाड़ी है जो
कभी वन विभाग के लोग चुरा लेते है और हरे पेड़
कटवा देते है ---खराब हो गयी पानी बनाने की
मशीन ---शेर भी आत्म हत्या करने लगे --कितने

पशु प्यासे मरने लगे --
तब धीरे धीरे
गाँव का भी पानी मरने लगा ---
पानी का अकाल व्यवस्था और मानवता पर
अट्टहास करते हुवे पहले गाँव पहुंचा
फिर
घर घर पहुँचने लगा !
बूंद बूंद पानी के लिए जीवन सिसकने लगा
पानी का हाहाकार मचा !

तब नेता और समाज के प्रहरी
सरकार से पानी के मांग की आवाज
बडी करने लगे --
यह आवाजें बडी चिरकुट है --
अवसरवादी है ---
कभी थोडे बादल आएंगे पानी बरसादेगे
और पानी जैसे मिलने लगेगा
फिर पानी की मांग की आवाज
सुनाई नही देगी --केवल शेर मरेगा
जंगल कटेगा --

सोचिए
क्या सरकार पानी बना सकती है?।
सरकार पानी जमीन से निकल सकती है ?
सरकार केवल जंगल साफ करा सकती है
सडके बना सकती है
स्मार्ट सिटी कंक्रीट के जंगलों से खडा कर सकती है
और ईवीएम पर बहस बढा सकती है
गावों के गाँव शहर लील ले ऐसा प्लान बना सकती है

किसी नदी तालाब मे शहर का शीवर लगा सकती है
नदी को मार सकती है -तालाबों मे घर बनवा सकती है
कुवो को सुखा सकती है ?
समरसेबुल से पानी खीच कर पाइपलाइन मे भेज
सकती है ?????
पानी ढो सकती है
पर सरकार पानी नही
बना  सकती ?? पानी बनाने का काम
तीन करते है
सिंह शायर और सपूत
यानि --समाज का पुरुषार्थ न कि
नेता अधिकारी और समाज के बिकाऊ
इजीनियर!
समाधान किसके पास ???
अभिमन्यु विद्यार्थी

Thursday, 7 February 2019

बुन्देलखण्ड मे सूखा अकाल सडके ढो रही है!





               






               
               

                  इत जमुना उत नर्मदा उत चम्बल इत टोस
                  छत्रसाल से लडन की रही न काहू होस ।
पानी दार नदियो की छत्र छाया के बाद भी
बुन्देलखण्ड  पानी के अकाल से क्योँ  तडफ रहा है ?
बुन्देलखण्ड मे एक मात्र  उद्योग सडक उद्योग ही क्यो दिखता है?
बुन्देलखण्ड के कम्युनिटी वाटर की हत्या  किसने की?
क्यो कॉरपोरेट वाटर आज गाँव गाँव मे एक सभ्यता  की तरह
फैल गया जो गरीब परिवारो मे आपदा को बढा रहा है !
पूरे बुन्देलखण्ड मे पानी के अकाल से निपटने के लिए कही कोई समाज़ तैयार दिख रहा है? ऐसी तैयारी जो बच्चो को भूख कुपोषण से बचा सके ! सरकार की ओर से आपदा प्रबंधन के काम बहुत कमजोर है ।
आपदा अकाल मे सरकार राहत कामों तक दिखती है!सरकार की तैयारी भी आधी अधुरी रहती है किंतु आपदा निवारण पर उसके प्रयास दूर दूर तक नजर नही आते। 
लगातार  2005 से आज तक बुन्देलखण्ड के किसान मजदूर आत्म हत्या क्यो कर रहे है?इसका पहला कारण है बरसात का कम और असमय होना !दूसरा सबसे बडा कारण बच्चो की भूख को मिटाने के विकल्प परिवारों मे न होना और तीसरा कारण है प्रतिष्ठा का नष्ट होना।बुन्देलखण्ड मे पानी का गौरवशाली इतिहास रहा है ।यहां के जीवन मे सम्मान और प्रतिष्ठा थी।
उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश के 70000 वर्ग किलोमीटर वाले भूभाग को बुन्देलखण्ड माना गया।यहां औसत वर्षा राजस्थान से अधिक यानी 800-900 एम एम होती रही है।इधर 2005 से यह औसत घटा है। जिसका परिणाम है कि सूखा यहा हर साल दस्तक दे रहा है।पहले सूखा 10- 11 वर्षो  मे एक बार आता था।
पानी अकाल क्यो?
चारो तरफ पानी जब समाप्त दिखने लगता है।ऐसी स्थिति को सूखा कहते है।
मानव जीवन के लिए सूखा सबसे खराब आपदा है! जब सूखा एक निर्धारित समय अवधि मे एक दशक के बाद आता है तो यह आपदा प्राकृतिक मानी गयी है कितु जब सूखा 2 साल के अन्तराल मे आ रहा है तो इस आपदा को मानव निर्मित आपदा कहेगे।
सूखा बुन्देलखण्ड समाज कीसबसे बडी आपदा है!और यह मानव निर्मित है।
मानव निर्मित आपदा इसलिए है कि मानव ने ही पानी बनाने की मशीन को खराब कर दिया।पानी बनाने की मशीन केवल जंगल पहाड जमीन ही है।बुन्देलखण्ड मे अंधाधुंध जंगल कटाई पहाड तुडाई यहाँ के बडे समाज और सरकारों द्वारा कराई गयी। इन पहाडों को तोडने वाले लोग कोई और नही आपदा से पलायन होकर आए आदिवासी ही थे ।
जंगलो पहाडों के सिसकने का हश्र यह हुवा कि बरसात बुन्देलखण्ड से दूर हो गयी !बादल आते है मुंह चिढा के भाग जाते है !पानी भण्डार के बडे बडे तालाब समाज के लालची वर्ग और सरकारो ने बर्बाद करा दिए।आजादी के बाद से ग्राम पंचायतों और सरकारी अधिकारियों ने मिल कर तालाबों के पट्टे करा दिए उनमे मकान बन गये ।
सरकारो ने नदियो मे चेकडेम बना कर तथा नदियो के किनारे पक्के निर्माण करा कर तथा नदियो मे शीवर शौचालय डाल कर उनकी हत्या कर दी ।नदियो के शुद्ध जल को बर्बाद कर दिया गया ।चित्रकूट की जीवन रेखा जो हजारो साल से आरहे अकालो मे नही सूखी वह 2007 से लगातार सूख रही है।
अब गाँव गाँव तक मिनरल वाटर की सप्लाई है जो दूध के कीमत से
अधिक है ।गरीबी मे जब पानी खरीद कर पीना पडता तब पता चलता है कि गाँव का सारा धन बाजार ले जाता है ।पानी पर समाज की आत्म निर्भरता को कॉरपोरेट पानी ने मार दिया ।
सूखा कब आता है ?
जब समय पर बरसात न हो या बरसात कम हो या न हो! आदि कारण पानी का अकाल लाते है ।लगातार दो वर्ष तक यदि बरसात ठीक से न हो तो तीसरे वर्ष बडा से बडा किसान टूट जाता है जिसकी आजीविका केवल खेती पर होती है!
सूखे ने बुन्देलखण्ड के बडे से बडे किसानो को सामाजिक आर्थिक रूप से कमजोर बना दिया है। आज स्थित यह है कि पूरे बुन्देलखण्ड मे  खेती पर आश्रित परिवारो के अन्दर अकाल से सामना करने की क्षमता नही रही। 
किसान बिज़ली का बिल और किसान क्रेडिट कार्ड बैंक ऋण तथा व्याज भुगतान करने की स्थिति नही है!किसान के पास जब सरकारी या साहूकार वसूली के लिए पहुंचते है तब वह मुंह दिखाने से कतराता है और अंत मे आत्म हत्या को समाधान मान लेता है ।
बुन्देलखण्ड मे किसान आत्म हत्या!
बुन्देलखण्ड ही नही पूरे भारत मे किसान व कृषि  श्रमिक आत्महत्या कर रहे
है।बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार बुन्देलखण्ड मे  2010 मे 583 किसानो तथा 2011 मे 519 किसानो ने आत्महत्याए की थी।किसान आत्महत्या का इतिहास भारत मे 1990 से दिखता है ।
सरकार की NCRB की रिपोर्ट के अनुसार 
पूरे भारत मे वर्ष 2014 मे 12360 तथा वर्ष  2015 मे 12602 किसानो ने आत्महत्या की थी ।सरकारी रिपोर्ट के अनुसार अबतक 1997 से 2006 तक 1लाख 66 हजार 300 किसान और कृषि मजदूर आत्म हत्या कर चुके है ।बुन्देलखण्ड मे किसान आत्म हत्या 2004 से शुरू हुई है।
सन 2018 मे महोबा जनपद के खन्ना थाना के किसान भीम सिंह फांसी मे झूले । इसी क्रम मे जनवरी 2019 मे महोबा के एक किसान ने फासी लगाकर आत्म हत्या कर ली ।
बीबीसी ने 23 मई 2015 की अपनी रिपोर्ट मे बताया कि मध्य प्रदेश के जनपद खरगोन के मोहनपुरा गांव के 
लाल सिंह भिलाल ने अपने 2 बच्चो को एक गढरिया के यहा गिरवी रखा दिया था ।यह घटना सच मे हृदयविदारक थी।किसान ने अपने बच्चे इसीलिए  गिरवी रखे क्यो कि 2016 - 2017 मे उसकी मिरचे और गेहूं की फसल पूरी नष्ट तो हो गयी थी !जिसपर उसने 60 हजार का कर्ज लिया था ।उसके पास 3 एकड खेत है।वह अपने खेत मे ट्यूबवेल लगाने के प्रयास मे था। ताकि अगली बार पानी के आभाव मे उसकी खेती न सूखे।उसके पास ट्यूबवेल लगवाने के लिए रूपये कम पड रहे थे तब उसने अपने बच्चो को गिरवी रखा !
अकाल से कैसे बचे !
बुन्देलखण्ड के समाज मे भूख बदहाली चरम सीमा मे है ।ऐसी समस्याओं के समाधान के प्रति क्या कोई पहल सरकार की दिखती है जो स्थाई विकास की हो? क्या सरकार कुछ कर रही है ? कहीं कोई आशा की किरण दिख रही है जो बुन्देलखण्ड के अन्दर सूखा से लडने की क्षमता समाज मे पैदा करने वाली हो और  प्रेरक हो ?
तब उत्तर मिलेगा कि लोग आपदाओ से अकेले अकेले लड रहे है।
सरकारी प्रयास स्थाई समाधान के नही है ।बल्कि सरकार की नीतियों ने तथा सरकारों योजनाओं ने समुदाय की संगठनात्मक क्षमता को मार दिया है।समाज की प्रतिरोधक क्षमता उसकी संगठनात्मक शक्ति होती है ।यदि वह मर गयी तो लोग केवल सरकार और भगवान भरोसे रहते है।सरकारी योजनाओं ने समुदाय के अन्दर की क्षमता को मार दिया है !
1999 मे भारत सरकार ने स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार रोजगार योजना
शुरू की थी ।2006-2007 तक की रिपोर्ट मे सरकार ने बताया कि 22-52 लाख स्वयं सहायता समूह बने।इन समूहों मे35लाख महिलाए सदस्य है।इस योजना मे क़रीब 14 लाख 40 हजार 373 करोण निवास करे।2006-07
मे सरकार ने इस योजना मे 1200 करोण मंजूर किए गये थे।बुन्देलखण्ड मे यदि इस योजना का परिणाम देखे तो आज गावों मे महिलाएं समूहों मे
ठगी गयी ।आज उनके अन्दर आपसी विश्वास मर गया है।
1999 से  बरगढ की ग्राम पंचायत गुइया-भौटी मे रहने वाली सावित्री तथा उनके समूह बिना सरकारी मदद के चला रही थी।महिला मण्डल समूह का नाम था।करीब 3 साल बाद सरकार के सेवादाता समूह मे गये बडी लालच देकर महिलाओं को ब्लाक और बैक से जोड़ दिया।समूह की महिलाए कहती है कि बैक मैनेजर ने हमारा पैसा सब इधर उधर करा दिया ।दलालों ने भी खाया हम अनपढ़ थे चालाक नही थे विश्वास मे ठग गये ।
बुन्देलखण्ड मे यह घटनाए सभी समूहों मे मिलेगी जिसमे बैक और ब्लाक के लोगो की मिली भगत से समूहों का पैसा निकल गया ।इस काम समूह के कुछ पदाधिकारियों को भी सामिल किया गया ।
आज महिलाओ मे आपसी विश्वास नही रह गया।विश्वाश की हत्या भी एक बडी आपदा को जन्म देती है ।सरकार अब आजीविका मिशन चला रही पर आज इस मिशन के पास सबसे बडी समस्या है कि महिलाओं के अन्दर  मसमूह वाले कामों मे आस्था नही है । अकेले जीने वाला समाज कैसे आपदा को जीत पायेगा?
सरकार केवल राहत कार्य तक दिखती है-
बुन्देलखण्ड मे सरकार ने केवल राहत काम चलाने वाले कार्य ही बडी तल्लीनता किये।यह होने चाहिए पर इसके साथ वह काम भी सरकार को करने चाहिए थे जिनसे समाज की संगठनात्मक ताकत मजबूत होती और समाज अकाल को जीत लेता ।यह स्थित बुन्देलखण्ड मे तब थी जब बुन्देलखण्ड मे राजाओ का शासन था।
बुन्देलखण्ड के इतिहास मे यह भूभाग वीर भूमि के नाम से जाना जाता था।
बुदेलखंड का नाम बाद मे पडा ।इसकी सीमा यहाँ की नदियो ने बना दी थी और यहाँ भाषा के आधार पर समाज एक साथ जीता था।यह वीर भूमि इसलिए कहा गया कि यहा का समाज बडी से बडी समाजिक और प्रकृतिक आपदा को जीत लेता था।
राजा छत्रसाल के जमाने मे सूखा गाँव मे आता था पर वह मुंह लटकाय खडा रहता था।14वी शताब्दी मे बर्मन राजा जब बुन्देलखण्ड आए।सबसे पहले राजा कीरत देव वर्मन ने एक बडा तालाब जो सागर की तरह दिखता है यानी कीरत सागर बनाया और इस नगर का नाम महोत्सव नगर रखा ।इसके बाद के शासक मदन देव वर्मन ने मदन सागर बनवाया।बुन्देलखण्ड मे जब भी अकाल आता था तो यहाँ के राजा केवल तालाब बनवाते थे ।इतिहास बताता है कि राजाओ ने बुन्देलखण्ड मे करीब 1600 खूबसूरत तालाब बनवाए।चरखारी का तालाबों का जोड़ तो बेजोड़ है !महोत्सव नगर को आज महोबा नाम से जाना जाता है।
महोबा जिले मे 2005 के बाद से किसानो के घर मे मातम है ।हर महीने कोई न कोई किसान आत्म हत्या कर रहा है और उसके मरने के बाद सरकार केवल कूछ राहत देकर आशू पोंछती है। लेकिन सरकार  पानी बनाने की मशीन को इतना बर्बाद कर रही है कि दुबारा बनाने की गुंजाइश न बचे।
भारत की लोकतांत्रिक सरकारे जो संविधान की मूल भावना पर बनी शपथ को पढकर जब देश चलाती है तो सायद वह आम आदमी के मौलिक अधिकारों को नही देखती ।आज़ादी के बाद से सबसे बडा सूखा 1967 -68 का है उसके बाद 80-81 का है और इसके बाद बुन्देलखण्ड मे 2000 से सूखा आया जो जाने का नाम नही ले रहा।यानी सरकारों की विकास योजनाएं सूखा पैदा करने वाली रही !
सरकारों ने बरसात के पानी को एकत्र करने वाली पारम्परिक धरोहरों को संहेजने के काम जो किए वह प्रभावी नही दिखे ।सरकार ने भूमि संरक्षण विभाग तथा सूखे से निपटने के लिए सूखा ग्रस्त ब्लाकों मे DPAP योजना भी चलाई ।यह सच है कि मिट्टी के संरक्षण के कामो मे सरकारी धन बडा खर्च हुवा। पर बुन्देलखण्ड की मिट्टी बच नही पायी ।समाज बताता है कि जिले  मे मिट्टी के अधिकारी हर हफ्ते अटैची भर नोट भर कर लखनऊ ले जाते थे। बुन्देलखण्ड अपना पानी कैसे बचाता !

1985 मे भारत सरकार के सिंचाई विभाग ने अपनी रिपोर्ट मे बताया था कि बुदेलखंड मे बरसात का पानी हर साल 1लाख 31 हजार 21 लाख घन मीटर आता है सरकार केवल 14 हजार 355लाख घन मीटर ही उपयोग कर पाती है।यानी 1लाख 66हजार 66 लाख घन मीटर पानी बर्बाद होकर बह जाता है जो अपने साथ खेतो की कीमती मिट्टी बहा कर नदियों मे फेक देता है।
ऊपरी सतह की मिट्टी सबसे कीमती होती है जिसको प्रकृति वर्षो बाद तैयार कर पाती है।बरसात के पानी का प्रबन्ध न कर पाना बुन्देलखण्ड के लिए बडी आपदा से कम नही !इसीलिए 2000 से सूखा अब बुन्देलखण्ड नही छोड रहा।
जब कि राजस्थान से सूखा ने मुँह मोड लिया है क्योंकि वहां का समुदाय संगठित है !
बुन्देलखण्ड मे बढती किसान आत्म हत्या को तत्कालीन भारत सरकार ने महसूस किया और 07-08 मे स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बुन्देलखण्ड आए।केन्द्र ने सूखे से निपटने की एक बडी धनराशि यानी 7000करोण रूपये का पैकेज उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश को दिया ।प्रदेश सरकारो ने सारा रूपया सच मे बर्बाद कर दिया ।इस पैसे से बनी अनाज मण्डी तो बन गयी पर उनमे जंगल पैदा हो गये आज तक वह नही चली।हमारे बरगढ के इलाके मे कुवे वहा बनवाएं गये जहा पानी नही था ।बहुत सारे मजदूरों की मजदूरी आज तक नही मिली ।
इसी प्रकार अगली सरकार ने राहत पैकेट अति गरीबों को बटवाए जिसमे देशी घी दूध पाउडर सामिल था ।यह सब काम केवल पैसा बनाने और वोट को आकर्षित करने का रहा ।इन्ही सरकारो ने पहाण जंगल को उद्योग मान कर अंधाधुंध नष्ट किया ।महोबा झाँसी ललितपुर चित्रकूट के पहाड़ जंगलों को जाकर देखिए सब नष्ट हो गये!तब बादल क्यो बरसेंगे बुन्देलखण्ड मे!
यह सच है कि बरसात के पानी को अपना बनाने का मन किसी भी सरकार मे नही रहा ।तब लगता है कि सरकारी नीतियां केवल पानी का अकाल बढाने वाली है !अकाल के समय जनता केवल जीवन की साँस जैसे मिले वैसे लेना चाहती है वह विचार शून्य रहती है ।
सरकारों की पेय जल निति भी अकाल लाने वाली है।गांवो मे जल स्तर बढाने वाले काम सरकारें नही करती ।वह ट्यूबवेल और पाईप लाईन सप्लाई को ही महत्व देती है ।बरगढ मे पीने के पानी की समस्या नही थी पर सरकार ने 2011 मे बरगढ को पेयजल सप्लाई दी जो आज तक नही चल सकी। करोडों रूपये खर्च हो गये ।
सरकार ने जंगलों को पुनर्जीवित करने के लिए जायका प्रोजेक्ट चलाया जो सरकारी लोगो का चरागाह बन गया और इसमे NGO को भी थोडी चासनी चला  दी ।आज शिक्षा व स्वास्थ के लिए NGO के साथ सरकारें जो काम कर रही वह केवल धन बर्बाद के अलावा कुछ नही ।
सरकारो ने गाँव के उद्योगों को पुनर्जीवित नही किया बल्कि मार दिया।आज हुनर वान लोग मजदूर हो गये।बुन्देलखण्ड की शिक्षाओ  और सभ्यता को क्रेसर उद्योगों ने मार दिया ।सरकार के पास मात्र एक बडा उद्योग है वह है सडक मेट्रो और पानी।सरकार ने बुन्देलखण्ड मे नदी जोड़ क्यो सोचा क्यों कि इसमे बडा पैसा है ।सरकार को चाहिए था -तालाब जोड़ या नदी तालाब जोड़ जैसे काम कराती वह भी समुदाय की अगुवाई मे होते तो असरकारी होते।
अभिमन्यु भाई
सामाजिक कार्यकर्ता!

Wednesday, 19 September 2018

पानी पुनर्जीवन मे लगे विशाख जी !

जो समाज जल बूँद से प्रेम करेगा
वह पानीदार बनेगा।
यह बात चित्रकूट के
युवा जिलाधिकारी विशाख जी अय्यर
सूखी मन्दाकिनी नदी समाज को समझा
रहे है।
सूखी मन्दाकिनी नदी
समाज के बीच उन्होने समाज को प्रेरित कर
सूखी नदी मे खुदाई कराई।खुदाई मनरेगा से हुई
पर समाज ने भी सहयोग देकर अपना पानी खोजा।
जिला प्रशासन की ओर से
मई 2018 से मन्दाकिनी नदी पुनर्जीवन अभियान
शुरू किया गया था।

आज वह मन्दाकिनी नदी ही नही
जनपद के सभी सूखे मृत जल श्रोतों के
पुनर्जीवन मे लगे है।
बुन्देलखण्ड मे पानी दार गांव कौन है ?
कैसे बनता है कोई गांव पानीदार ?
सरकार के धन से या समाजिक
पुरुषार्थ की अगुवाई से !
तब चित्रकूट मंडल के
के उन गांवो को देखना होगा कि जिन्हे सरकार
ने कोई धन नही दिया और वह पानी दार
बन गये !
चित्रकूट जनपद की अच्छी नदिया इसलिए सूख गयी
कि उनमे केवल सरकारी अगुवाई से पानी संरक्षण के काम
चेक डैम बना कर किए गये ।
चित्रकूट जनपद की मन्दाकिनी और सिघाश्रोत नदी का समाज कहता है कि हमारी नदी को चेकडेम ने
सुखाया और पेड़ो की कटाई ने।
सरकारी प्रयासों से सूखी जलधाराओ को समाज ने
मिलकर कैसे पुनर्जीवित किया इसका उदाहरण
बांदा जनपद मे जखनी गांव और चित्रकूट मे
बरगढ के कुछ गांव है जिनमे पानी की
कहानी समाज ने रची !
भारत सरकार के ग्राउड वाटर बोर्ड द्वारा
चित्रकूट मे जल पर एक कार्यशाला दिनांक
19 सितम्बर 2018 को आयोजित की।
कार्यशाला का विषय था--
सहभागिता द्वारा जल मृत प्रबन्धन
एव स्थानीय भूजल विषय पर प्रशिक्षण!
इस कार्यशाला मे ऐसी सफल कहानी भी सुनने को मिली
जिसमे सामाजिक अगुवाई ने अपने गांव मे बरसात
की बूँद को बडे प्यार से रोका उसे न दौडने दिया न
चलने दिया बल्कि रेगा कर सीधे तालाब मे डाल दिया।
यह कहानी जखनी और बरगढ की थी।
पानी को भी प्यार सम्मान चाहिए।
समाजिक सहभागिता की सफल कहानी से
मिली जानकारीया
बडी सार्थक और प्रेरणा प्रद रही ।
बरगढ की कहानी मे सिघाश्रोत नदी पुनर्जीवन
और समाज द्वारा बनाए तालाब है।
कहानी के दिलचस्प पहलू यह थे कि-
चित्रकूट के बरगढ क्षेत्र की गुइया गांव की नदी
सिघाश्रोत जब 2011 मे सूखी
तब अपनी मरी नदी को जीवित करने मे
गांव की 5 माताओ की नदी पुनर्जीवन पहल कहानी
ने दिल छू लिया।
2011 मे चित्रकूट मे पानी का हाहाकार मचा था
यहाँ  के वर्तमान जिलाधिकारी पशुवो का तथा
समाज का जीवन कैसे बचे इस पर परेशान थे।
बरगढ मे उन्हे आशा की किरण दिखी और दौड़कर
वह पूर्व आई ए एस कमल टावररी जी के साथ
सीधे बरगढ पहुंचे और सिघाश्रोत नदी गये।
सच यह था कि जिलाधिकारी जी
महिलाओं के पुरुषार्थ को देखने नही गये बल्कि जिले के सूखे जल श्रोतो मे पानी कैसे पैदा हो नदी कैसे बहे इस ग्यान को
लेने गये।
सिघाश्रोत नदी पुनर्जीवन को देखा सीखा !
नदी से लौट कर  तुरंत आदेश किये कि
सूखी नदियो मे खुदाई करा कर
पानी खोजा जाय ?
जखनी गांव की कहानी मे समाज
ने बरसात के पानी का प्रबन्धन समाजिक बल से किया
और वह वहां का समाज पानी का बंटवारा बडे
सहभागी ढंग से करता है। सरकार का इसमे एक
भी योगदान नही है ।गांव मे जबरदस्त जातीय धार्मिक
समरसता है!
गांव मे जल स्वालंबन दिखता है ??
जखनी और बरगढ के समाज ने
यह सिद्ध कर दिया  कि समाज जब
अपने पुरुषार्थ से कोई संकल्प लेता है और उसे
पूजा की तरह करता है वह परिणाम रोशनी
देने वाले होते है ।
चित्रकूट के वर्तमान युवा जिलाधिकारी श्री विशाख जी
दिल से पानी दार है--'
सच मे वह पानी से प्रेम करते है ।
जनपद मे आते ही मन्दाकिनी पुनर्जीवन
पर समाज की अगुवाई देखी तो वह भी
सूखी मन्दाकिनी नदी को जीवित करने मे लग
गये।तब पंचायत भी लगी और सरकारी लोग
की प्रथभिकता बनी ।धीरे धीरे जनप्रतिनिधि भी
लगे !
परिणाम यह रहा कि सूखी मन्दाकिनी गावो मे
बहने लगी !
पानी आने से गांव मे पानी के
अभाव मे मरने वाले पशुवो  को जीवन मिला।
गांव की महिलाओं को राहत मिली क्यों कि
पानी सबसे महिलाऐं खोजती है ढोती
है।परिवार मे शांति लाने के लिए वह 24 घंटे
अशांत रहती है ।बच्चे पढ़ाई छोडकर केवल
मा के साथ पानी ही ढ़ोते है।
महात्मा गाँधी विश्व विद्यालय की पर्यावरण विषय
मे डीन शु श्री साधना चौरसिया ने बताया कि
मंदाकिनी नदी कैसे सूखी ?
सरकारी चेकडैम नदी क्यो सूखा देते है --
जब कि भारीभरकम बजट खर्च होता है --
सिघाश्रोत तथा मन्दाकिनी नदी के समाज
ने बडे खुले शब्दो मे कहा
ने हमारी नदी सूखने कि एक बडा कारण सरकारी
चेकडेम भी है !!@
जिलाधिकारी श्री विशाख जी  ने जिले मे आकर
इस पर ध्यान दिया।कल उन्होंने बताया कि वर्ष 018-019
मे चेकडेम प्रस्ताओ पर बडी चौकसी से निरीक्षण कराया।
नये चेकडैम कैसे लाभ प्रद हो? इस नजरिए से
नये प्रस्ताव देखे गये ।
उन्होंने बताया कि -
चित्रकूट जनपद मे इस वर्ष  करीब
56 चेक डैम के प्रस्ताव आए।
प्रस्ताव परिक्षण मे यह देखा गया कि वह क्या
पानी संरक्षण कर सकते है?
परिक्षण मे पाया गया कि --केवल 15 चेकडेम
के प्रस्ताव ऐसे मिले जो वाजिब थे ।
सोचिए
कि हमारे बीच एक ऐसा समाज भी है
जिसने सरकारी चेक डैम के बिना अपने
गांव मे पानी का संरक्षण किया !
सच मे यदि सरकार ऐसे लोगो के साथ जुड़
कर काम करे तो कम धन मे समाज
पानी दार बन जायगा !!
समाजिक अगुवाई यदि सीखना है तो
तो  इसके लिए पानी दार गांव जैसे बरगढ
के आजाद पूर्वा सेमरा
लसही चलना होगा या भाई उमा शंकर के
जखनी गांव जाना होगा ।
जहां गांव की सहभागिता से गाँव के चुनींदा
लोगो के द्वारा
बरसात की एक एक बूँद का सम्मान किया गया
उसके साथ प्रेम किया गया ।
बरगढ  के समाज ने
अपने पुरुषार्थ से करीब
15 तालाब तब बनाए जब फ्रांस के एक
युवा ने पानी से तडपते समाज के बीच
बरसात की एक बूँद के
महत्व को बताने के लिए --गांव गांव मे
राते बिताई -हिंदी सीखा और पानी गांव मे
कैसे रुकें इस पर गांव के पुराने ग्यान की पहचान
गांव वालों से ही बनवाई ।चित्रकूट की 42 डिग्री
की गरमी को सहा।
तब गांव मे पुरुषार्थ जगा और लोग अपने खेत मे
तालाब बनाने के लिए श्रमदान करने लगे।
2013 से लेकर 2015 तक बरगढ के पानी दार
किसानो ने अपनी भूमि मे अपने श्रमदान के
लिए तालाब खोदने लगे ।
बाद मे उनकी गरीबी को देखते हुवे अर्थिक मदद्
ईश्वर ने दिलाई।
2018 की बरसात मे तालाबों मे पानी लबालब है ।
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून
बरसात की एक बूँद  कैसे
मोती की तरह सुरक्षित करे और फिर उसका उपयोग भी मोती की तरह हो ।
तब समाज मे समृद्धि
देखेगी और समाज पानीदार बनेगा।
समाज न चेक डैम से पानीदार होगा न ही
बडे बाँध से होगा!
समाज जब जल की बूँद से प्रेम करेगा तब
पानीदार होगा।
अभिमन्यु भाई

Wednesday, 12 September 2018

गंगा के लिये तड़पता ऋषि वैज्ञानिक


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Submitted by editorial on Mon, 09/10/2018 - 18:34
स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद के अनशन का 81वाँ दिन

स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदस्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदमानवीय प्रयासों द्वारा धरती में अवतरित एकमात्र नदी गंगा को वर्तमान पीढ़ी भविष्य के लिये नहीं छोड़ना चाहती। इतिहास इस बात का गवाह है कि जब भी भारतीय सभ्यता, समाज और राज पर कोई गहरा संकट आता था तो ऋषि मुनि, तपस्वी और राज ऋषि समाज और राज को सही रास्ता दिखाते थे जिससे आने वाले संकट से बचा जाता था।

वर्तमान में गंगा जी भी अति संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रही हैं। सिर्फ बरसात के तीन महीनों में गंगा जी की अवस्था कुछ ठीक रहती है और बाकी के 9 महीने तो लगभग वो मृतप्राय ही होती हैं। गंगा जी कि यह स्थिति कैसे हुई यह एक अतिमहत्त्वपूर्ण विषय है लेकिन इस पर सरकार का बिल्कुल भी ध्यान नहीं है। यही वजह है कि गंगा जी की सभी बीमारियों की जानकारी उनके निदान की समझ रखने वाले स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द (पूर्व प्रो. जी.डी.अग्रवाल) जी को बार-बार तपस्या (आमरण अनशन) करना पड़ रहा है। हमारी सरकारों को या तो गंगा जी कि विशिष्टता की समग्र समझ ही नहीं है या फिर जान-बूझकर समझने की कोशिश नहीं की जा रही है।

प्रो.अग्रवाल कहते हैं, “गंगा एक सामान्य नदी नहीं है, यह मानव प्रयास (राजा भागीरथ) द्वारा पृथ्वी पर लाई गई एक विशेष धारा है। इसके विशेष गुणों की समझ सभी धर्म के लोगों में थी। मुगल शासक अकबर तो नित्य गंगाजल का सेवन ही करता था, औरंगजेब भी गंगाजल को स्वास्थवर्धक मानता था।”

अंग्रेजी हुकूमत के दौरान गंगा नहर निर्माण के समय गंगाजल की विशिष्टता को अक्षुण रखने की माँग पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने उठाया था जिसके बाद हरकी पैड़ी में गंगा की अविरलता सुनिश्चित करने हेतु 1916 में हरिद्वार में एक बैठक का आयोजन किया गया था।

इस बैठक में 32 गैर सरकारी एवं 18 सरकारी प्रतिनिधि शामिल हुए थे। बैठक में शामिल हुए लोगों में 8 राज्यों के महाराजा भी थे जिनमें से 2 महाराजा दक्षिण से थे। कहने का निहितार्थ यह है कि उस समय भी सिर्फ गंगा बेसिन का मामला नहीं था बल्कि यह सांस्कृतिक धरोहर, एक पवित्रधारा, गंगाजल के स्वास्थ्यप्रद गुणों और रोगनाशक क्षमता का मामला था।

गंगाजल स्वास्थ्यप्रद गुणों की बात केवल एक कोरी मान्यता नहीं है इसे वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा भी सिद्ध किया जा चुका है। हम सभी ने यह अनुभव जरूर किया होगा कि गंगाजल को वर्षों तक रखने पर भी सड़ता नहीं है जबकि किसी अन्य नदी के जल के मामले में ऐसा नहीं है।

गंगाजल की इस विशेषता को समझने के लिये 1974-75 में आईआईटी कानपुर में प्रो. अग्रवाल के मार्गदर्शन में एमटेक के छात्र काशी प्रसाद ने शोध किया। शोध में पाया गया कि बिठूर (कानपुर के पास) से एकत्र किये गए गंगाजल में जब कोलीफार्म मिलाया गया तो कुछ दिनों में उसका 98 प्रतिशत हिस्सा स्वतः नष्ट हो गया।

कोलीफार्म मिलाए गए जल को जब फिल्टर किया गया तो उसमें केवल 45 प्रतिशत ही कोलीफार्म नष्ट हुए। उसी जल का जब पूर्ण शोधन किया गया तो कोलीफार्म की मात्रा में कोई बदलाव नहीं हुआ यानि कि एक भी कोलीफार्म खत्म नहीं हुआ। इसके बाद बिठूर से लिये गए जल को जब प्रयोगशाला में सेन्ट्रीफ्यूज (centrifuge) किया गया तो जल की कोलीफार्म नष्ट करने की क्षमता खत्म हो गई। इस प्रयोग से यह स्पष्ट हुआ कि गंगाजल में निलम्बित कण ही इस गुण के वाहक हैं।

इसी प्रकार से आईआईटी कानपुर में ही डीएस भार्गव द्वारा किये गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि गंगाजल में अवजल के शोधन करने की क्षमता सामान्य नदी जल से अधिक है। सामान्य नदी जल में बीओडी नष्ट करने (BOD Removal) की दर 0.01 से 0.02 थी जबकि गंगा में यह दर 0.17 है यानि की अन्य नदियों की तुलना में 8-17 गुना अधिक।

इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी चण्डीगढ़ ने अपने अध्ययन में गंगा जी में पाये जाने वाले फाजेज की मैपिंग करते हुए पाया कि इनमें 17 प्रकार के रोगाणुओं (जैसे बिब्रिथो कालरा, टायफाइड, सल्मोनेला आदि) को मारने/नष्ट करने की क्षमता है।

जिस समय टिहरी बाँध बन रहा था उस समय यह बात उठी थी कि टिहरी बाँध के कारण गंगाजल की विशिष्टताओं पर कोई प्रभाव तो नहीं पड़ेगा। इस बात को जानने के लिये बाँध का निर्माण करने वाली टीएचडीसी कम्पनी ने अध्ययन की जिम्मेदारी राष्ट्रीय पर्यावरण आभियांत्रिकी शोध संस्थान (नीरी) नागपुर को दी। नीरी ने अपने अध्ययन में पाया कि गंगा में कई भारी धातु और रेडियोएक्टिव पदार्थ सूक्ष्म मात्रा में विद्यमान हैं। इसमें विशेष बैक्टीरियोफाजेज भी है। और ये सभी विशेष गुण गंगा में पाये जाने वाले निलम्बित कणों (बहकर आने वाले मिट्टी के कणों) में विद्यमान हैं।

नीरी ने ही अपने अध्ययन में यह स्पष्ट किया कि 90 प्रतिशत निलम्बित कण टिहरी बाँध में जमा हो जाएँगे। यानि टिहरी बाँध बनने के बाद गंगाजल के 90 प्रतिशत विशिष्ट गुण समाप्त हो जाएँगे। परन्तु जैसा वर्तमान में पर्यावरणीय अध्ययनों में होता है।

नीरी की रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि अलकनन्दा और मंदाकिनी नदियों के जल में भी यह विशिष्टताएँ विद्यमान हैं इसीलिये देवप्रयाग में ये गुण पुनः विद्यमान हो जाएँगे। परन्तु अब तो श्रीनगर में भी अलकनन्दा के प्रवाह क्षेत्र में बाँध बन गया है यानि की अलकनन्दा और मंदाकिनी के जो विशिष्ट गुण थे वह भी श्रीनगर बाँध की झील में समाप्त हो गए। इससे साफ़ है कि भागीरथी के प्रवाह क्षेत्र में टिहरी बाँध और अलकनन्दा के प्रवाह क्षेत्र में श्रीनगर बाँध के बन जाने के बाद गंगाजल की उस क्षमता का ह्रास हो गया जिसके कारण गंगा को पाप और रोगों का नाश करने वाली विलक्षण धारा माना जाता था।

जैसाकि आप सभी को पता ही होगा कि हरिद्वार से गंगाजल का लगभग 90 प्रतिशत भाग गंगनहर में डाल दिया जाता है जिससे उत्तर प्रदेश एवं दिल्ली में सिंचाई एवं पेयजल की आपूर्ति की जाती है। गंगा की अपनी धारा में बहुत ही कम पानी रह जाता है और फिर हरिद्वार के मलजल शोधन संयंत्र (जगजीतपुर, कनखल) से शोधित-अशोधित मल-जल को गंगा में डाल दिया जाता है जहाँ से एक नई मलिन गंगा का बहाव नीचे की तरफ होता है।

उसके बाद गंगा में कई छोटी-बड़ी नदियाँ और धाराएँ मिलती हैं जिनमें भी अधिकांशतः या तो नगरों और कस्बों का अपमल होता है या फिर उद्योगों का अवजल। फिर उत्तर प्रदेश के नरोरा में बैराज बनाकर गंगा को नहर में पुनः डाल दिया जाता है। प्रयाग (इलाहाबाद) एवं वाराणसी में जो लाखों लोग प्रतिदिन स्नान करते हैं वह नगरों के अपमल एवं उद्योगों द्वारा गंगा में विसर्जित अवजल है क्योंकि गंगोत्री,बद्रीनाथ एवं केदारनाथ से आने वाले गंगाजल की मात्रा तो शायद ही वहाँ तक पहुँच पाती है।

अगले वर्ष 2019 में प्रयाग में पड़ने वाले महाकुम्भ की तैयारियाँ बड़े जोर-शोर से चल रही हैं जिसमें करोड़ों श्रद्धालुओं के साथ साधु-सन्त, महामण्डलेश्वर, शंकराचार्य सभी वहाँ एकत्रित होकर गंगा स्नान का पुण्य लाभ अर्जित करेंगे। तैयारी यही होगी कि मुख्य स्नान दिवसों पर टिहरी बाँध से पानी छोड़ा जाएगा। परन्तु एक बड़ा सवाल है कि छोड़े गए पानी का कितना भाग हरिद्वार एवं नरोरा कैनाल से होते हुए प्रयाग पहुँचेगा? कितना अवजल या मलिन जल उसमें मिला होगा? या फिर पिछले कुम्भ की भाँति शारदा नहर का भी सहारा लिया जाएगा।

यह मान भी लिया जाये कि टिहरी से छोड़ा गया कुछ जल प्रयाग पहुँच भी गया तो क्या उसमें गंगाजल का वह अद्वितीय गुण-धर्म होगा जिसके लिये वह जानी जाती है? ऐसा शायद ही हो क्योंकि अद्वितीय गुण-धर्म वाले कण तो टिहरी झील की तलहटी में समा गए हैं। तो क्या यह उन करोड़ों लोगों की आस्था के साथ छलावा नहीं होगा जो लम्बी-लम्बी यात्राएँ करके गंगा में डुबकी लगाने के लिये आते हैं? क्या उनके द्वारा श्रद्धा से अपने घर ले जाया गया जल स्वच्छ और निर्मल होगा जिसके लिये गंगा जानी जाती है।

भारत सरकार द्वारा संचालित स्वच्छ गंगा मिशन ‘नमामि गंगे’ में प्रमुख जोर मल-जल शोधन संयंत्रों (STPS) को बनाने पर है जबकि 1986 में भारतीय सरकार द्वारा चलाए गए गंगा एक्शन प्लान (GAP) की विफलताएँ सभी के सामने हैं। गंगा की सफाई बिना उसकी अविरलता की पुनर्बहाली के नहीं हो सकती है लेकिन लगता है सरकार इससे कोई सरोकार नहीं रखती। तभी तो गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बाँधों की स्वीकृति वाटरवेज का निर्माण की पहल की जा रही है।

प्रो. जी.डी. अग्रवाल जी को देश का पहला पर्यावरण वैज्ञानिक माना जा सकता है आईआईटी कानपुर में पहली बार इन्होंने ही पर्यावरण अभियांत्रिकी पढ़ाना शुरु किया था। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के प्रथम सदस्य सचिव रहते हुए प्रदूषण नियंत्रण हेतु कानून/नियम बनाने, मानको के निर्धारणों, मापन तकनीकों के विकास में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। यहाँ तक कि केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के संरचना के विकास में भी इन्होंने अपना उल्लेखनीय योगदान दिया है।

लम्बे समय के बाद 2007 में जब प्रो. अग्रवाल का हिमालय की गंगा घाटी में जाना हुआ तो गंगा जी की दुर्दशा (विशेषकर बाँधों/जल विद्युत केन्द्रों) को देखकर उनका मन व्यथित हो उठा और उन्होंने गंगा जी की दशा ठीक करने हेतु अपने स्तर पर प्रयास करने शुरू कर दिये। परन्तु एक वर्ष तक विभिन्न स्तरों पर किये गए प्रयासों के बाद उन्हें महसूस हुआ कि न ही समाज, न सरकारें और न ही साधु-सन्त गंगा जी की दशा को लेकर गम्भीर हैं। इसके बाद उन्होंने जून 2008 में आमरण अनशन इसलिये प्रारम्भ किया कि आने वाली पीढ़ी कम-से-कम 100 किमी गंगोत्री से उत्तरकाशी तक गंगा जी को अपने नैसर्गिक रूप में देख सके।

मनेरी भाली प्रथम (उत्तरकाशी से 13 किमी ऊपर) से गंगा सागर तक गंगा कहीं भी अपने नैसर्गिक रूप में नहीं बची है। उनके लगातार (3 बार) आमरण अनशनरूपी तपस्या का प्रतिफल रहा कि उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच प्रस्तावित एवं निर्माणाधीन तीन परियोजनाओं पाला-मनेरी, भैरवघाटी एवं लोहारीनाग पाला को तत्कालीन राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार ने निरस्त कर दिया।

केन्द्र सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया। नेशनल रिवर गंगा बेसिन आथरिटी (NGRBA) का गठन किया गया साथ ही उत्तरकाशी से गंगोत्री तक के इलाके को इको सेंसिटिव जोन घोषित किया गया। यहाँ तक कि देश में नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह को लेकर जो सोच शुरू हुई यह डॉ. अग्रवाल जी की तपस्या का ही प्रतिफल है।

जब अलकनन्दा में श्रीनगर एवं विष्णुगाड़ पीपलकोटि तथा मंदाकिनी में फाटाव्योंग एवं सिंगोली-भटवारी जैसी परियोजनाएँ बनने लगीं तब उनका मानना था कि नीरी की रिपोर्ट में जो बात कही गई थी कि मंदाकिनी और अलकनन्दा में भी विशेष गुण है, अब तो वह भी श्रीनगर बाँध की झील में समा जाएँगे। गंगा के साथ हो रहे इस तरह के बर्ताव ने हमेशा उनके मन को बेचैन किया जिससे उन्हें बार-बार आमरण अनशन करना पड़ा।

प्रो. जी.डी. अग्रवाल जी का यह मानना था कि देश के साधु-संत तथा धर्माचार्य ही गंगा की दशा सुधारने हेतु सरकारों को नियंत्रित एवं क्रियाशील रख सकते हैं। इसी सोच के साथ उन्होंने शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानन्द जी के शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी से सन्यास की दीक्षा लेकर स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द का नाम धारण किया। इसके पीछे का मूल उद्देश्य यह था कि शंकराचार्यों, महामण्डलेश्वरों एवं साधु-सन्तों के बीच रहकर उन्हें गंगा संरक्षण हेतु प्रेरित करें और उन्हें इसके लिये सही रास्ता दिखा सकें।

2013 में स्वामी सानन्द जी के आमरण अनशन के दौरान जब उन्हें दून अस्पताल में रखा गया था तब पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी ने वृंदावन बुलाकर उनका उपवास समाप्त करवाया। साथ ही यह आश्वासन भी दिया कि मोदी जी जब प्रधानमंत्री बन जाएँगे तब जो आपकी सोच गंगा के प्रति है जो आप चाहते हैं हम सभी पूर्ण कराएँगे। यहाँ तक कि कई राजनीतिक एवं प्रभावशाली व्यक्तियों ने जो गंगा के प्रति श्रद्धा भी रखते हैं तथा बीजेपी से भी जुड़े हैं, स्वामी सानन्द को आश्वासन दिया था कि बीजेपी की सरकार बनते ही आपकी माँगों को पूर्ण कराया जाएगा।

जब 2014 में चुनाव के समय वाराणसी में मोदी जी ने कहा कि मुझे माँ गंगा ने बुलाया है तो उनकी आशा बढ़ी कि मोदी जी गंगा संरक्षण हेतु प्रभावी कदम उठाएँगे। जब मोदी जी ने नया गंगा मंत्रालय बनाकर उसका प्रभार उमा भारती जी को दिया तब सानन्द जी की और भी आशाएँ बढ़ीं। परन्तु चार वर्ष बीत जाने के बावजूद भी गंगा की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ तो स्वामी सानन्द उन सभी लोगों से मिले जिन्होंने गंगा को संरक्षित करने का उन्हें आश्वासन दिया था। उनसे मिलने के बाद स्वामी सानंद को यह पता चला कि आकाओं ने तो गंगा के संरक्षण के लिये कोई काम ही नहीं किया।

इससे स्वामी सानंद को घोर निराशा हुई और वे गंगा दशहरा 22 जून 2018 से आमरण अनशन रूपी तपस्या पर हैं। स्वामी जी जानते हैं कि जब तक गंगा के संरक्षण हेतु कड़े कानून नहीं बनेंगे तब तक उनकी दशा सुधर नहीं सकती है। उनका मानना है कि जो लोग गंगा को एक सामान्य नदी की तरह देखते हैं वे उनका संरक्षण नहीं कर सकते। गंगा को पवित्र धारा समझने वाले गंगा भक्त ही उनकी दशा को ठीक कर सकते हैं। इन्हीं बातों की ध्यान में रखते हुए उन्होंने इन चार माँगों को सरकार के समक्ष रखा है।

1. गंगा के लिये प्रस्तावित अधिनियम ड्राफ्ट 2012 पर तुरन्त संसद द्वारा चर्चा कराकर पास कराना (इस ड्राफ्ट के प्रस्तावकों में स्वामी सानन्द, एम.सी.मेहता और इ.परितोष त्यागी शामिल थे)। ऐसा न हो सकने पर उस ड्राफ्ट की धारा 1 से धारा 9 को अध्यादेश द्वारा तुरन्त लागू और प्रभावी कराया जाये।

2. अलकनन्दा, धौलीगंगा, नन्दाकिनी, पिण्डर तथा मन्दाकिनी पर सभी निर्माणाधिन/प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाओं को तुरन्त निरस्त करना।

3. प्रस्तावित अधिनियम की धारा 4 (D) वन कटान तथा 4 (F) व 4 (G) किसी भी प्रकार की गंगा में खुदान पर पूर्ण रोक तुरन्त लागू कराना विशेषतया हरिद्वार क्षेत्र में।

4. गंगा-भक्त परिषद का गठन, जो गंगा और केवल गंगा के हित में काम करने की शपथ गंगा में खड़े होकर लें।

स्वामी सानन्द की तपस्या अनशन प्रारम्भ होने के बाद उमा भारती, पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री भारत सरकार तथा नितिन गडकरी सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री, नौवहन एवं जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा पुनरुद्धार मंत्री भारत सरकार के पत्र आये, जिनमें माँगों को लेकर कोई बात नहीं थी। उमा भारती अनशनरत स्वामी सानन्द जी से मिलने मातृसदन हरिद्वार भी आईं। इन सबसे ऐसा लग रहा है कि भारत सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती।

सरकार इस दम्भ में भी है कि वह जो कर रही है वही सही है। नमामि गंगे जैसी परियोजनाओं से गंगा का कोई भला नहीं होने वाला है। सरकार की यह दोहरी मानसिकता समझ से परे है एक तरफ गंगा में बाँधों की शृंखला खड़ी की जा रही है और जलमार्ग बनाए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ नमामि गंगे जैसी असफल योजनाओं का ढोल पीटा जा रहा है।

खैर, स्वामी सानन्द जी 81 दिनों से अन्न फल त्याग कर सिर्फ जल के सहारे तपस्या में हैं यह गंगा माँ की कृपा ही है कि 86 वर्ष के होते हुए वे आज भी निराश एवं दुखी रूप में हमारे बीच हैं। इसी बीच में एम्स ऋषिकेश को अपनी देह दान करने हेतु कानूनी प्रक्रिया भी पूर्ण कर चुके हैं।

सरकार और समाज दोनों की आत्मा तो मर ही चुकी है। साधु-सन्त भी विलासिता के चक्कर में गंगा को भुलाकर अपनी आत्मा को मार चुके हैं। गंगा की यह दुर्दशा और ऋषि वैज्ञानिक स्वामी सानन्द की तपस्या व्यर्थ नहीं जाएगी। सरकारों, समाज एवं साधु सन्तों को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। गलती सुधारने का अभी भी मौका है आगे शायद मौके भी न मिलें।



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