रविवार, 14 जुलाई 2013

कहा जाता है कि समाज और घर को अगर शिक्षित और समझदार बनाना हो तो स्त्रियों को शिक्षित और समझदार बनाना चाहिए। यह बात बिहार के पश्चिम चंपारण के मझौलिया क्षेत्र के लिए बिल्कुल सही बैठती है।
बिहार में यूं तो कई ऐसे गांव हैं, जहां पुरुष गांव के चौपाल में नशे में धुत्त ताश के पत्ते फेंटते मिल जाएंगे। लेकिन पश्चिम चंपारण के मझौलिया क्षेत्र के लिए यह बात पुरानी हो गई है। यह बदलाव किसी सरकारी पहल या स्वयंसेवी संस्थाओं की वजह से नहीं, बल्कि गांव की ही 'आधी अबादी' के कारण संभव हुआ।
जिला मुख्यालय बेतिया से करीब 25 किलोमीटर दूर गोपालपुर और मझौलिया थाना इलाके के तिरुवाह क्षेत्र में यह बदलाव आपको देखने को मिलेगा, जहां के लोगों ने अब न केवल शराब से तौबा कर ली है, बल्कि ताश के खेल को छोड़ खेत और खलिहानों को ही मनोरंजन का साधन बना चुके हैं।
बूढ़ी गंडक, कोहड़ा और गाद नदियों के किनाारे बसे महेशपुर, सोनवर्षा, बिरइठ खाप, मंगलपुर, पुरैनाडीह जैसे करीब 15 गांवों को तिरुवाह क्षेत्र कहा जाता है। नदियों से घिरे इस क्षेत्र में जाने के लिए आज भी लोगों का एकमात्र सहारा नाव ही है, जिस कारण सरकारी महकमों से यह क्षेत्र बराबर उपेक्षित ही रहता है। लेकिन महिलाओं की पहल से यहां स्थिति पूरी तरह बदल गई है।
इस अभियान की शुरुआत किसी एक महिला या किसी महिला संगठन ने नहीं की। जगन्नाथपुर की उप मुखिया कमलापति देवी के अनुसार, "गांव की महिलाएं पहले तो पियक्कड़ पुरुषों के घर गईं और उनसे शराब व जुआ छोड़ने की मिन्नतें की। इसके बाद भी जब लोगों ने शराब नहीं छोड़ा तो उस परिवार का सामाजिक बहिष्कार करने का निर्णय लिया गया। यदि कोई महिला आज भी अपने पति या घर के किसी अन्य पुरुष के शराब पीने की शिकायत करती है तो उस पर कार्रवाई की जाती है।"
सोनवर्षा की रहने वाले अधिवक्ता राजू ओझा के मुताबिक, "शुरुआत में इन महिलाओं को काफी परेशानी का सामना करना पड़ा, लेकिन धीरे-धीरे पुरुषों को भी यह बात में समझ में आ गई और आज कई गांव शराब मुक्ति अभियान में लगे हुए हैं। आज पुरुष स्वेच्छा से इस अभियान में जुट रहे हैं।"
ग्रामीणों का कहना है कि कुछ समय पहले तक गांव के अधिकतर घरों में शाम ढलते ही लड़ाई-झगड़ा शुरू हो जाता था, जो अब बंद हो गया है। सभी परिवार अब अपने बच्चों को विद्यालय भेज रहे हैं। आज चैपाल पर लोग जुटते जरूर हैं, परंतु वहां बातें बच्चों को शिक्षित करने और विकास की होती हैं।
मझौलिया प्रखंड के प्रखंड विकास अधिकारी संजय कुमार का भी कहना है कि गांव में सभी प्रकार के परिवर्तन प्रशासन के वश की बात नहीं होती। कई प्रकार की कुरीतियों और बुरी आदतों को छुड़ाने के लिए सामाजिक स्तर पर पहल करने की जरूरत होती है। उन्होंने अभियान की सराहना की। उन्होंने माना कि आधी आबादी की पहल से ही इन गांवों की फिजा बदली है।

बुधवार, 27 मार्च 2013



बंपर उपज बिहार में, बवाल दुनिया में

फ़ैसल मोहम्मद अली
बीबीसी संवाददाता, नालंदा, बिहार


सुमंत कुमार किसान नांलदा
प्रशासन ने कहा है कि विश्व रिकॉर्ड का दावा फ़सल की जांच-परख के बाद ही किया गया.
क्या आप दरवेशपुरा के बारे में जानते हैं? शायद नहीं!
सच पूछिए तो 10 दिनों पहले तक मैं भी नहीं जानता था, जब इंटरनेट पर दूसरी हरित क्रांति से जुड़ी ख़बरें ढ़ूंढ़ते-ढ़ूंढ़ते मेरी नज़र ब्रितानी अख़बार गार्डियन में छपे एक लेख पर पड़ी.
लेख में कहा गया था कि बिहार के नांलदा ज़िले के दरवेशपुरा गांव में एक किसान के खेत में उतनी धान पैदा हुई जितनी इससे पहले दुनिया भर में कहीं नहीं हुई थी.
गार्डियन के पर्यावरण संपादक जॉन विडाल ने लिखा है कि किसान सुमंत कुमार के खेत में एक हेक्टयर में 22.4 टन की दर से हुई उपज उन तीन अरब से अधिक लोगों के लिए 'बहुत बड़ी ख़बर है' जिनका मुख्य भोजन चावल है.
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'किसानों को फ़ायदा'

तक़रीबन 190 साल पुराने अख़बार गार्डियन में छपी इस ख़बर के बाद जैनियों के पवित्र स्थली पावापुरी से भी आगे बसा दरवेशपुरा गांव, अधिकारियों, कृषि वैज्ञानिकों, स्वंयसेवी संस्थाओं और मिडिया का तीर्थ बन गया है - जहां चीन से लेकर, अमरीका और नीदरलैंड्स तक से लोग पहुंच रहे हैं.
हालांकि गेंहुए रंग और, छरहरे क़द-काठी वाले, सुमंत कुमार कहते हैं कि उन्हें तो पता भी नहीं था कि धान और आलू का कोई रिकॉर्ड भी होता हैं.
"पहले ले-देके सब बराबर हो जाता है, लेकिन अब पहले से ठीक है. बच्चों को स्कूल भेज रहा हूं. घर बनवाने में भी हाथ लगा दिया है."
धनंजय सिंह, किसान
बीजों की तैयारी, बुआई और सिंचाई में पारंपरिक तरीक़े से अलग तरह की खेती की पद्धित अपनाने वाली इस विधि को - सिस्टम ऑफ राइस इंटेनसीफीकेशन या श्री विधि के नाम से जानते है.
इसे 'सिस्टम ऑफ़ रूट इंटेनसीफीकेशन' भी बुलाया जाता है.
हालांकि अफ्रीक़ा के मेडागास्कर में एक ईसाई पादरी की मदद से विकसित किए गए तरीक़े के समर्थकों का दावा है कि इसे दुनिया भर के तक़रीबन 40 मुल्कों के किसानों ने अपनाया है, जिससे उनकी उपज कई गुना बढ़ी है, और ज़ाहिर है बेहतर आमदनी ने उनकी ज़िंदगी में बेहतरी लाई है.
नांनद गांव के धनंजय सिंह पिछले दो सालों से इसी विधि से खेती कर रहे हैं. इस बार उन्होंने आठ बीघे खेत में गेंहू की खेती भी श्री विधि से ही की है.
वो कहते हैं, “पहले ले-देके सब बराबर हो जाता है, लेकिन अब पहले से ठीक है. बच्चों को स्कूल भेज रहा हूं. घर बनवाने में भी हाथ लगा दिया है.”
भारत के केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के हवाले से कहा गया है कि सरकार के राष्ट्रीय भोजन सुरक्षा मिशन के तहत श्री विधि को 16 राज्यों में बढ़ावा दिया जा रहा है.

वैज्ञानिकों के बीच बहस

"मुझे उम्मीद है लोग इस तरह की बातों से आगे बढ़कर उन चीज़ों पर ध्यान देंगे जिनकी सत्यता प्रमाणित हो चुकी है."
अचिम डोबरमैन, अंतरराष्ट्रीय चावल रिसर्च संस्थान
दिन ब-दिन बढ़ते ख़र्च और पर्यावरण को हो रहे नुक़सान की वजह से भारत की पहली हरित क्रांति तकनीक की हाल के दिनों में जिस तरह आलोचना होती रही है, समझा जा रहा था कि श्री विधि कृषि में एक विकल्प बनकर उभरेगी.
नोबेल पुरुस्कार विजेता अर्थशास्त्री जोसफ़ स्टिग्लिट्स ने भी दरवेशपुरा का दौरा किया, और कहा है कि वैज्ञानिकों को वहां जाकर किसानों से सीख लेनी चाहिए.
लेकिन वैज्ञानिकों का एक बड़ा वर्ग अभी भी इसे कृषि प्रबंधन से अधिक कुछ मानने को तैयार नहीं.
अंतरराष्ट्रीय चावल रिसर्च संस्थान के डिप्टी डॉयरेक्टर जनरल अचिम डोबरमैन ने गार्डियन में छपे लेख के बारे में कहा है, ''मुझे उम्मीद है लोग इस तरह की बातों से आगे बढ़कर उन चीज़ों पर ध्यान देंगे जिनकी सत्यता प्रमाणित हो चुकी है.''
लेकिन कार्नेल यनिवर्सिटी के नॉर्मन अपहोफ आलोचनाओं के जवाब में कहते हैं कि पिछले लगभग चार दशकों से वैज्ञानिकों का ध्यान महज़ बीज की गुणवत्ता बढ़ाने और कृत्रिम खाद के इस्तेमाल पर रहा है और फ़सल के प्रबंधन की बात ही नहीं की गई है.

इस पूरे विषय पर विस्तार से चर्चा देखिएगा ईटीवी नेटवर्क पर बीबीसी हिंदी के टीवी कार्यक्रम ग्लोबल इंडिया में.